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स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।

स्त्रियों की पराधीनता पुस्तक में मिल पुरुष-वर्चस्ववाद की स्वीकार्यता के आधार के तौर पर काम करने वाली सभी प्रस्तरीकृत मान्यताओं-संस्कारों-रूढ़ियों को, और स्थापित कानूनों को तर्कों के जरिए प्रश्नचिद्दों के कठघरे में खड़ा करते हैं। निजी सम्पत्ति और असमानतापूर्ण वर्गीय संरचना के इतिहास के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ पाने के बावजूद, मिल ने परिवार और विवाह की संस्थाओं के स्त्री-उत्पीड़क, अनैतिक चरित्र के ऊपर से रागात्मकता के आवरण को नोंच फेंका है और उन नैतिक मान्यताओं की पवित्रता का रंग-रोगन भी खुरच डाला है जो सिर्फ स्त्रियों से ही समस्त एकनिष्ठता, सेवा और समर्पण की माँग करती हैं और पुरुषों को उड़ने के लिए लीला-विलास का अनन्त आकाश मुहैया कराती हैं। पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है। स्त्री-पुरुष समानता के विरोध में जो उपादान काम करते हैं, उनमें मिल प्रचलित भावनाओं को प्रमुख स्थान देते हुए उनके विरुद्ध तर्क करते हैं। वे बताते हैं कि (उन्नीसवीं शताब्दी में) समाज में आम तौर पर लोग स्वतंत्रता और न्याय की तर्कबुद्धिसंगत अवधारणाओें को आत्मसात कर चुके हैं लेकिन स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के सन्दर्भ में उनकी यह धारणा है कि शासन करने, निर्णय लेने और आदेश देने की स्वाभाविक क्षमता पुरुष में ही है। इसका एक कारण मिल यह मानते हैं कि अठारहवीं शताब्दी के ‘तर्कबुद्धिसंगति के राज्य’ के विपरीत उन्नीसवीं शताब्दी में ‘नैसर्गिक मूल मानवीय प्रवृत्तियों’ पर जोर देने की एक अतिरेकी परिणति यह हुई कि हम अपनी खामियों-कमजोरियों को भी ‘प्रकृति की इच्छा’ या ‘ईश्वर का आदेश’ मानकर सहज-स्वाभाविक मान लेते हैं। समाज के कायदे-कानून अनुभव के आधार पर अपनाये जाते हैं और ऐसा कभी नहीं रहा कि पुरुष सत्ता और स्त्री-सत्ता दोनों के तुलनात्मक अनुभव के बाद पुरुष-वर्चस्व के नियम-कायदे बने हों। यानी स्त्री-अधीनस्थता की समूची सामाजिक व्यवस्था एकांगी अनुभव व सिद्धान्त पर आधारित है। परिवार, निजी सम्पत्ति, शत्रुवत वर्ग-सम्बन्धों वाली सामाजिक संरचनाओं और राज्य सत्ता के उद्भव और विकास के इतिहास के एक ‘फ्रेमवर्क’ के अभाव में, मिल की यह मान्यता है कि मानव समाज के प्रारम्भिक दौरों में पुरुषों द्वारा दी गई महत्ता और अपनी शारीरिक दुर्बलता के चलते स्त्रियाँ स्वतः पुरुषों के अधीन हो गयीं और उनकी यह अधीनस्थता कालान्तर में विधि सम्मत हो गयी क्योंकि कानून और राज्यतंत्र के नियम मौजूदा वस्तुगत यथार्थ को ही संहिताबद्ध करने का काम करते हैं तथा व्यक्तियों के बीच मौजूदा सम्बन्धों पर आधारित होते हैं। आगे चलकर, ये ही नियम-कानून स्त्रियों पर बलात् शासन के उपकरण बन गये। मिल के अनुसार, प्राचीन काल में बहुत-से स्त्री-पुरुष दास थे। फिर दास-प्रथा के औचित्य पर प्रश्न उठने लगे और धीरे-धीरे यह प्रथा समाप्त हो गयी लेकिन स्त्रियों की दासता धीरे-धीरे एक किस्म की निर्भरता में तब्दील हो गयी। मिल स्त्री की निर्भरता को पुरातन दासता की ही निरन्तरता मानते हैं जिसपर तमाम सुधारों के रंग-रोगन के बाद भी पुरानी निर्दयता के चिद्द अभी मौजूद हैं और आज भी स्त्री-पुरुष असमानता के मूल में ‘ताकत’ का वही आदिम नियम है जिसके तहत ताकतवर सब कुछ हथिया लेता है।

  1. इस श्रृंखला के बारे में
    1. सम्पादकीय प्रस्तावना
  2. उन्नीसवीं शताब्दी में स्त्री-प्रश्न और जॉन स्टुअर्ट मिल
    1. प्रबोधनकालीन यूरोप में स्त्री-प्रश्न
    2. उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध का गतिरोध और स्त्री-प्रश्न
    3. उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध : नये विचारों, नये संघर्षों के आवेगमय दौर में स्त्री-प्रश्न
    4. जॉन स्टुअर्ट मिल : व्यक्तित्व और विचार
    5. यह पुस्तक और स्त्री-मुक्ति के बारे में जॉन स्टुअर्ट मिल के विचार
  3. स्त्रियों की पराधीनता
  4. अध्याय दो
  5. अध्याय तीन
  6. अध्याय चार

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